आज की शिक्षा बचपन को निगल रही है। वर्तमान सन्दर्भ में यह पूर्णतः सत्य
है। शिक्षा आजकल किताबों को रटकर पुरे-पुरे अंक लाने का पर्याय हो गयी है।
इस दौड़ ने बच्चों के जीवन को किताबों के बोझ तले दबा कर उनके बचपन को दफ़न
कर दिया है। रही सही कसार तथाकथित उच्च-स्तरीय कोचिंग सेंटरों ने कर दी है।
बच्चे विद्यालय से आते ही कोचिंग के लिए चले जाते हैं और फिर देर शाम को
घर वापिस आते हैं. ना तो उनके पास खेलने का समय रहता है और ना ही किसी
मनोरंजन या शौक के लिए। अभिभावक और शिक्षक गण सभी उनसे बहुत उम्मीदें रखते
हैं और उन उम्मीदों को पूरा करने की धुन में बच्चें अपने आप को और अपने
बचपन को, दोनों भूल जाते हैं।
निम्न कहावत आज के विद्यार्थियों पर पूरी तरह लागु होती है:-
हाय रे विद्यार्थी जीवन, तेरी यही कहानी कन्धों पर किताबों का बोझ और कभी ना ख़त्म होती बचपन की क़ुरबानी ।
शहरों में छात्रों द्वारा आत्महत्या की बढ़ती खबरें रोंगटे खड़े कर देने वाली है। आखिर दोष किसका है? मेरे ख्याल से तो बच्चों का कतई नहीं। वे तो बच्चे है जैसा सिखाओगे, बनाओगे वैसा ही वो बनेंगे। आत्महत्या से पहले छिपाकर छोड़ी गयी पर्चियां लिखते वक्त इन मासूमों पर क्या गुज़रती होगी। उन पर्चियों के शब्दों पर गौर करें तो पता चलता है कि प्यार और अपराध बोध की कितनी कश्मकश से गुजरते होंगे ये बच्चे।
अब शिक्षा के विषय में कुछ और चिंतन करते हैं कि इसने व्यक्ति को कैसे अर्थ केन्द्रित कर दिया है? वास्तव में हमारी आज की शिक्षा प्रणाली ‘कोचिंग प्रधान’ शिक्षा प्रणाली है इसमें कोचिंग और ट्यूशन के माध्यम से अध्यापक वर्ग भी केवल धनोपार्जन कर रहा है। वह अपने विद्यार्थी वर्ग को केवल धन का कीड़ा बनाकर तैयार कर रहा है, इससे अलग वह उसके विषय में कुछ भी नही सोचता। अध्यापक ने शिक्षा का व्यापारीकरण कर दिया है और विद्यार्थी को वह अपने लिए केवल अर्थोपार्जन का एक माध्यम मानने लगा है। इसलिए छात्र निर्माण से राष्ट्र निर्माण का शिक्षक और शिक्षा का उद्देश्य समाप्त हो गया है।
शिक्षा का व्यवसायीकरण हो, यह बात भारत के सनातन सांस्कृतिक मूल्यों के विपरीत है। शिक्षा तो दान देने से बढ़ती है। पर आज शिक्षा खुलेआम बेची जा रही है। प्याउ वाले देश में पानी बेचा जा रहा है। अतिथि देवो भव: वाले देश में आतिथ्य बेचा जा रहा है। गुरू और भगवान के समक्ष दर्जा पाने वाले वैद्य या डॉक्टर आज बूचड़खाने के कसाई जैसा निर्मम व्यवहार कर रहे हैं। जब सारी गंगा ही उल्टी बह रही है तो शिक्षा में व्यवसायीकरण कैसे रूक पायेगा?
आजकल शहरों में तो क्या, गांवों में भी शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। यदि आंकड़ों को देखा जाए तो सरकार स्कूलों में केवल निर्धन वर्ग के लोगों के बच्चे ही पढऩे के लिए आते है, क्योंकि निजी शिक्षा संस्थाओं के फीस के रूप में बड़ी-बड़ी रकमें वसूली जाती है, जिन्हें केवल पैसे वाले ही अदा कर पाते है। आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व निजी स्कूलों की संख्या आज के मुकाबले न के बराबर थी और वही विद्यार्थी निजी स्कूलों में पढऩे जाया करता था, जिसे शिक्षा के क्षेत्र में नकारा घोषित कर दिया जाता था, लेकिन आज स्थिति बिल्कुल इसके विपरीत है। निजी शिक्षण संस्थाएं कुकरमुत्तों की तरह फैली हुई है। निजी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए संपन्न वर्ग के बच्चों में एक होड़ सी लगी हुई है। आज अच्छी और उच्च शिक्षा का व्यवसायीकरण हो रहा है।
इन सपनों और अच्छे भविष्य का बोझ लेकर बच्चे कोटा जैसे कोचिंग संस्थानों में पहुंच तो जाते है लेकिन उस माहौल में अपने आप को रातों-रात फिट नहीं कर पाते है। आखिर कर भी कैसे पाएंगे? पहली बार ही तो घर से दूर जाते हैं, न माँ-बाप, न भाई-बहन का प्यार, न खाने पीने की अच्छी सुविधा- मानों एक ही रात में पूरी ज़िंदगी बदल गयी हो। ऊपर से ये रोज़-रोज़ के क्लास टेस्ट, ये क्लास टेस्ट के परिणाम प्रतिदिन हजारों बच्चों को हताश, निराश करके एकाकीपन के कुएं की तरफ धकेल देते हैं। इसमें से कुछ कंप्यूटर गेम्स, कुछ नशीली ड्रग्स और कुछ चोरी-फिरौती जैसे कारनामों में शामिल हो जाते है। वहीं कुछ बच्चे दिन-रात गणित, भौतिक, रसायन के फॉर्मूले रटते-रटते मानसिक रोगी हो जाते है।
आजकल की शिक्षा पद्धति पर गौर करें तो पता चलता है कि हम लोग रटंत विद्या के शिकार होते चले जा रहे हैं। देश के शीर्ष संस्थानों में पहुँचने वाले छात्रों की प्रतिभा पर भी सवाल उठने लगे है, न भाषा पर अधिकार न समाज के प्रति संवेदनशीलता, मानों हम मनुष्य रहे ही नहीं।इन शीर्ष संस्थानों में पढ़ रहे बच्चों में कल्पनाशीलता, रचनात्मकता का निरंतर ह्रास होता चला जा रहा है जो हमारे विकासशील देश के लिए एक चिंता का विषय है।
अगर भविष्य में हमें ऐसी अप्रिय घटनाओं से निजात पाना है तो इसका हल हमें पूरी शिक्षा व्यवस्था में ही ढूंढना ही होगा, वो भी जल्द से जल्द। अब वक्त आ गया है जब केंद्र सरकार और राज्य सरकारें मिलकर शिक्षा के पूरे ढांचे पर पुनः विचार करें, प्रतिस्पर्धा कोई बुरी बात नहीं है लेकिन बच्चों को इतना मजबूत बनाना ज़रूरी है कि जीवन में एक-दो परीक्षाओं में असफल होना उनके लिए बहुत मायने न रखे।
भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्वों में सरकार को यह निर्देश दिया गया था कि वह 14 वर्ष तक के सारे बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा देने की व्यवस्था 26 जनवरी 1960 तक करेगी। यदि इस तारीख के लगभग 50 वर्ष बीतने के बाद भी यह काम नहीं हो पाया है, तो उसके कारणों को खोजना होगा। क्या प्रस्तावित विधेयक उन कारणों को दूर करता है ? यही इस विधेयक को जांचने की मुख्य कसौटी होनी चाहिए। सरकारों की ओर से अपने दायित्व-निर्वाह में इस चूक के लिए प्रमुख दलील दी जाती रही है कि भारत एक गरीब देश है और सरकार के पास संसाधनों की कमी रही है। किन्तु इस दलील को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
विकल्प क्या हो :
यदि वास्तव में देश के सारे बच्चों को अच्छी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना है, तो सरकार को ऐसे कानून और ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिसमें निम्न बातें सुनिश्चित हों -
(1) देश में समान स्कूल प्रणाली लागू हो, जिसमें एक जगह के सारे बच्चे अनिवार्य रुप से एक ही स्कूल में पढ़ेंगे।
(2) शिक्षा के व्यवसायीकरण और शिक्षा में मुनाफाखोरी पर प्रतिबंध हो। जो निजी स्कूल फीस नहीं लेते हैं, परोपकार (न कि मुनाफे) के उद्देश्य से संचालित होते हैं, और समान स्कूल प्रणाली का हिस्सा बनने को तैयार हैं, उन्हें इजाजत दी जा सकती है।
(3) देश में विदेशी शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश पर रोक लगे। हम विदेशों से ज्ञान, शोध, शिक्षण पद्धतियों और शिक्षकों-विद्यार्थियों का आदान-प्रदान एवं परस्पर सहयोग कर सकते हैं,किन्तु अपनी जमीन पर खड़े होकर।
(4) शिक्षा में समस्त प्रकार के भेदभाव और गैरबराबरी समाप्त की जाए।
(5) पूर्व प्राथमिक से लेकर कक्षा 12 तक की शिक्षा का पूरा ख्रर्च सरकार उठाए। स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक, भवन, शौचालय, पेयजल, खेल मैदान, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शिक्षण सामग्री, खेल सामग्री, उपकरण, छात्रावास, छात्रवृत्तियों आदि की पूरी व्यवस्था के लिए सरकार जरुरी संसाधन उपलब्ध कराए।
(6) शिक्षकों को स्थायी नौकरी, पर्याप्त वेतन और प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाए। शिक्षकों से गैर-शिक्षणीय काम लेना बंद किया जाए। मध्यान्ह भोजन की जिम्मेदारी शिक्षकों को न देकर दूसरों को दी जाए। कर्तव्य-निर्वाह न करने वाले शिक्षकों पर कार्यवाही की जाए।¦
(7) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का वर्चस्व खतम किया जाए।
(8) स्कूलों का प्रबंध स्थानीय स्वशासन संस्थाओं द्वारा और जनभागीदारी से किया जाए।
(9) प्रतिस्पर्धा का गलाकाट एवं दमघोटूं माहौल समाप्त किया जाए। निजी कोचिंग संस्थाओं पर पाबंदी हो। प्रतिस्पर्धाओं के द्वारा विद्यार्थियों को छांटने के बजाय विभिन्न प्रकार की उच्च शिक्षा, प्रशिक्षण एवं रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराये जाएं।
(10) शिक्षा को मानवीय, आनंददायक, संपूर्ण, सर्वांगीण, बहुमुखी, समानतापूर्ण, एवं संवेदनशील बनाने के लिए शिक्षण पद्धति और पाठ्यचर्या में आवश्यक बदलाव किए जाएं। बस्ते का बोझ कम किया जाए। किताबी एवं तोतारटन्त शिक्षा को बदलकर उसे ज्यादा व्यवहारिक, श्रम एवं कौशल प्रधान, जीवन से जुड़ा बनाया जाए। बच्चों के भीतर जिज्ञासा, तर्कशक्ति, विश्लेषणशक्ति और ज्ञानपिपासा जगाने का काम शिक्षा करे। बच्चों के अंदर छुपी विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं व क्षमताओं को पहचानकर उनके विकास का काम शिक्षा का हो। शिक्षा की जड़ें स्थानीय समाज, संस्कृति, देशज परंपराओं और स्थानीय परिस्थितियों में हो। शिक्षा को हानिकारक विदेशी प्रभावों एवं सांप्रदायिक आग्रहों से मुक्त किया जाए। संविधान के लक्ष्यों के मुताबिक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रकि भारत के प्रबुद्ध एवं जागरुक नागरिक तथा एक अच्छे इंसान का निर्माण का काम शिक्षा से हो।
निम्न कहावत आज के विद्यार्थियों पर पूरी तरह लागु होती है:-
हाय रे विद्यार्थी जीवन, तेरी यही कहानी कन्धों पर किताबों का बोझ और कभी ना ख़त्म होती बचपन की क़ुरबानी ।
शहरों में छात्रों द्वारा आत्महत्या की बढ़ती खबरें रोंगटे खड़े कर देने वाली है। आखिर दोष किसका है? मेरे ख्याल से तो बच्चों का कतई नहीं। वे तो बच्चे है जैसा सिखाओगे, बनाओगे वैसा ही वो बनेंगे। आत्महत्या से पहले छिपाकर छोड़ी गयी पर्चियां लिखते वक्त इन मासूमों पर क्या गुज़रती होगी। उन पर्चियों के शब्दों पर गौर करें तो पता चलता है कि प्यार और अपराध बोध की कितनी कश्मकश से गुजरते होंगे ये बच्चे।
अब शिक्षा के विषय में कुछ और चिंतन करते हैं कि इसने व्यक्ति को कैसे अर्थ केन्द्रित कर दिया है? वास्तव में हमारी आज की शिक्षा प्रणाली ‘कोचिंग प्रधान’ शिक्षा प्रणाली है इसमें कोचिंग और ट्यूशन के माध्यम से अध्यापक वर्ग भी केवल धनोपार्जन कर रहा है। वह अपने विद्यार्थी वर्ग को केवल धन का कीड़ा बनाकर तैयार कर रहा है, इससे अलग वह उसके विषय में कुछ भी नही सोचता। अध्यापक ने शिक्षा का व्यापारीकरण कर दिया है और विद्यार्थी को वह अपने लिए केवल अर्थोपार्जन का एक माध्यम मानने लगा है। इसलिए छात्र निर्माण से राष्ट्र निर्माण का शिक्षक और शिक्षा का उद्देश्य समाप्त हो गया है।
शिक्षा का व्यवसायीकरण हो, यह बात भारत के सनातन सांस्कृतिक मूल्यों के विपरीत है। शिक्षा तो दान देने से बढ़ती है। पर आज शिक्षा खुलेआम बेची जा रही है। प्याउ वाले देश में पानी बेचा जा रहा है। अतिथि देवो भव: वाले देश में आतिथ्य बेचा जा रहा है। गुरू और भगवान के समक्ष दर्जा पाने वाले वैद्य या डॉक्टर आज बूचड़खाने के कसाई जैसा निर्मम व्यवहार कर रहे हैं। जब सारी गंगा ही उल्टी बह रही है तो शिक्षा में व्यवसायीकरण कैसे रूक पायेगा?
आजकल शहरों में तो क्या, गांवों में भी शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है। यदि आंकड़ों को देखा जाए तो सरकार स्कूलों में केवल निर्धन वर्ग के लोगों के बच्चे ही पढऩे के लिए आते है, क्योंकि निजी शिक्षा संस्थाओं के फीस के रूप में बड़ी-बड़ी रकमें वसूली जाती है, जिन्हें केवल पैसे वाले ही अदा कर पाते है। आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व निजी स्कूलों की संख्या आज के मुकाबले न के बराबर थी और वही विद्यार्थी निजी स्कूलों में पढऩे जाया करता था, जिसे शिक्षा के क्षेत्र में नकारा घोषित कर दिया जाता था, लेकिन आज स्थिति बिल्कुल इसके विपरीत है। निजी शिक्षण संस्थाएं कुकरमुत्तों की तरह फैली हुई है। निजी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए संपन्न वर्ग के बच्चों में एक होड़ सी लगी हुई है। आज अच्छी और उच्च शिक्षा का व्यवसायीकरण हो रहा है।
इन सपनों और अच्छे भविष्य का बोझ लेकर बच्चे कोटा जैसे कोचिंग संस्थानों में पहुंच तो जाते है लेकिन उस माहौल में अपने आप को रातों-रात फिट नहीं कर पाते है। आखिर कर भी कैसे पाएंगे? पहली बार ही तो घर से दूर जाते हैं, न माँ-बाप, न भाई-बहन का प्यार, न खाने पीने की अच्छी सुविधा- मानों एक ही रात में पूरी ज़िंदगी बदल गयी हो। ऊपर से ये रोज़-रोज़ के क्लास टेस्ट, ये क्लास टेस्ट के परिणाम प्रतिदिन हजारों बच्चों को हताश, निराश करके एकाकीपन के कुएं की तरफ धकेल देते हैं। इसमें से कुछ कंप्यूटर गेम्स, कुछ नशीली ड्रग्स और कुछ चोरी-फिरौती जैसे कारनामों में शामिल हो जाते है। वहीं कुछ बच्चे दिन-रात गणित, भौतिक, रसायन के फॉर्मूले रटते-रटते मानसिक रोगी हो जाते है।
आजकल की शिक्षा पद्धति पर गौर करें तो पता चलता है कि हम लोग रटंत विद्या के शिकार होते चले जा रहे हैं। देश के शीर्ष संस्थानों में पहुँचने वाले छात्रों की प्रतिभा पर भी सवाल उठने लगे है, न भाषा पर अधिकार न समाज के प्रति संवेदनशीलता, मानों हम मनुष्य रहे ही नहीं।इन शीर्ष संस्थानों में पढ़ रहे बच्चों में कल्पनाशीलता, रचनात्मकता का निरंतर ह्रास होता चला जा रहा है जो हमारे विकासशील देश के लिए एक चिंता का विषय है।
अगर भविष्य में हमें ऐसी अप्रिय घटनाओं से निजात पाना है तो इसका हल हमें पूरी शिक्षा व्यवस्था में ही ढूंढना ही होगा, वो भी जल्द से जल्द। अब वक्त आ गया है जब केंद्र सरकार और राज्य सरकारें मिलकर शिक्षा के पूरे ढांचे पर पुनः विचार करें, प्रतिस्पर्धा कोई बुरी बात नहीं है लेकिन बच्चों को इतना मजबूत बनाना ज़रूरी है कि जीवन में एक-दो परीक्षाओं में असफल होना उनके लिए बहुत मायने न रखे।
भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्वों में सरकार को यह निर्देश दिया गया था कि वह 14 वर्ष तक के सारे बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा देने की व्यवस्था 26 जनवरी 1960 तक करेगी। यदि इस तारीख के लगभग 50 वर्ष बीतने के बाद भी यह काम नहीं हो पाया है, तो उसके कारणों को खोजना होगा। क्या प्रस्तावित विधेयक उन कारणों को दूर करता है ? यही इस विधेयक को जांचने की मुख्य कसौटी होनी चाहिए। सरकारों की ओर से अपने दायित्व-निर्वाह में इस चूक के लिए प्रमुख दलील दी जाती रही है कि भारत एक गरीब देश है और सरकार के पास संसाधनों की कमी रही है। किन्तु इस दलील को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
विकल्प क्या हो :
यदि वास्तव में देश के सारे बच्चों को अच्छी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना है, तो सरकार को ऐसे कानून और ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिसमें निम्न बातें सुनिश्चित हों -
(1) देश में समान स्कूल प्रणाली लागू हो, जिसमें एक जगह के सारे बच्चे अनिवार्य रुप से एक ही स्कूल में पढ़ेंगे।
(2) शिक्षा के व्यवसायीकरण और शिक्षा में मुनाफाखोरी पर प्रतिबंध हो। जो निजी स्कूल फीस नहीं लेते हैं, परोपकार (न कि मुनाफे) के उद्देश्य से संचालित होते हैं, और समान स्कूल प्रणाली का हिस्सा बनने को तैयार हैं, उन्हें इजाजत दी जा सकती है।
(3) देश में विदेशी शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश पर रोक लगे। हम विदेशों से ज्ञान, शोध, शिक्षण पद्धतियों और शिक्षकों-विद्यार्थियों का आदान-प्रदान एवं परस्पर सहयोग कर सकते हैं,किन्तु अपनी जमीन पर खड़े होकर।
(4) शिक्षा में समस्त प्रकार के भेदभाव और गैरबराबरी समाप्त की जाए।
(5) पूर्व प्राथमिक से लेकर कक्षा 12 तक की शिक्षा का पूरा ख्रर्च सरकार उठाए। स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक, भवन, शौचालय, पेयजल, खेल मैदान, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शिक्षण सामग्री, खेल सामग्री, उपकरण, छात्रावास, छात्रवृत्तियों आदि की पूरी व्यवस्था के लिए सरकार जरुरी संसाधन उपलब्ध कराए।
(6) शिक्षकों को स्थायी नौकरी, पर्याप्त वेतन और प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाए। शिक्षकों से गैर-शिक्षणीय काम लेना बंद किया जाए। मध्यान्ह भोजन की जिम्मेदारी शिक्षकों को न देकर दूसरों को दी जाए। कर्तव्य-निर्वाह न करने वाले शिक्षकों पर कार्यवाही की जाए।¦
(7) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का वर्चस्व खतम किया जाए।
(8) स्कूलों का प्रबंध स्थानीय स्वशासन संस्थाओं द्वारा और जनभागीदारी से किया जाए।
(9) प्रतिस्पर्धा का गलाकाट एवं दमघोटूं माहौल समाप्त किया जाए। निजी कोचिंग संस्थाओं पर पाबंदी हो। प्रतिस्पर्धाओं के द्वारा विद्यार्थियों को छांटने के बजाय विभिन्न प्रकार की उच्च शिक्षा, प्रशिक्षण एवं रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराये जाएं।
(10) शिक्षा को मानवीय, आनंददायक, संपूर्ण, सर्वांगीण, बहुमुखी, समानतापूर्ण, एवं संवेदनशील बनाने के लिए शिक्षण पद्धति और पाठ्यचर्या में आवश्यक बदलाव किए जाएं। बस्ते का बोझ कम किया जाए। किताबी एवं तोतारटन्त शिक्षा को बदलकर उसे ज्यादा व्यवहारिक, श्रम एवं कौशल प्रधान, जीवन से जुड़ा बनाया जाए। बच्चों के भीतर जिज्ञासा, तर्कशक्ति, विश्लेषणशक्ति और ज्ञानपिपासा जगाने का काम शिक्षा करे। बच्चों के अंदर छुपी विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं व क्षमताओं को पहचानकर उनके विकास का काम शिक्षा का हो। शिक्षा की जड़ें स्थानीय समाज, संस्कृति, देशज परंपराओं और स्थानीय परिस्थितियों में हो। शिक्षा को हानिकारक विदेशी प्रभावों एवं सांप्रदायिक आग्रहों से मुक्त किया जाए। संविधान के लक्ष्यों के मुताबिक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रकि भारत के प्रबुद्ध एवं जागरुक नागरिक तथा एक अच्छे इंसान का निर्माण का काम शिक्षा से हो।
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